वो महीम रेशे
बङे ही महीम धागों में आहिस्ता आहिस्ता पिरोया था हर एहसास
कुछ उँगलियों में उलझाए
कुछ बालों संघ सुलझाए
बङे ही महीम धागे
बङे प्यार से सजाए
रेशा रेशा जोङ
एक रास्ता बनाया, जिसने जोङा
मुझे तुमे तक- तुम्हें मुझ तक
हमें हम तक
रेशम के वो धागे तुम्हारी गर्दन की घुमाऊदार गली से यूँ मेरी कमर से आ लिपटते
मानो पेङ के तने से लिपटी एक बोगनविलिया की लता
रिश्ते के गहरे होते के साथ हर रेशा कसता गया
और कब बेध्याने धागे छिझने लगे ना तुम्हें एहसास हुआ न मुझे
इक दूसरे को और करीब लाने की होङ में
इक दूसरे को थोङा और पाने की होङ में
हमें बाँधने वाले उन महीम धागों को
आहिस्ता आहिस्ता हमने उलझा दिया
आहिस्ता आहिस्ता हमने रौंद दिया
पर आज भी कुछ धागे मेरी साङी की सिलवट में छिपे हैं
कुछ रेशे तुम्हारी अँगूठी में बँधे है
सिलवट सवारते हुए कभी वो एहसास आज भी छू जाता है
अँगूठी से साबुन छुङाते हुए कभी महक आज भी साँसों में भर जाती है
मैं ब्लॉक कर रहा हूँ। तुम जिन लम्हों को पन्नें पर उतार देती हो। वो सिरहन पैदा कर देते है। रोज़ लिखो....... लिखती रहो ।शानदार ।
ReplyDeleteThank you Sir!
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